दिल और दिमाग...!!!

ज़िन्दगी में हर पल इक नया दौर लेके आता है,
फिर भी इस तिराहे पे खड़ा मन हमेशा मुझे क्यूँ मचलाता है।
क्या यह दिल और दिमाग को एक करने की ज़द्दोज़ेहेत है,
जो कभी भी एक राह पर चलने को तैयार न हुए हैं।

ज़िन्दगी के इस तिराहे पे कभी दिल ने दिमाग को धोखा देना चाहा,
तो कभी दिमाग ने दिल को धोखा देना चाहा।
और इस दिलो-दिमाग की आपसी कलह में फैसला हमेशा मुझे ही करना पड़ा,
कि कहीं आगे चलके कोई बड़ा रोड़ा न आ के हो जाए खड़ा।

राह तो तीन ही थी हमेशा,
एक पे दिल, दुसरे पे दिमाग और तीसरा वो बंद हो चुका रास्ता जिसपर मैं था अभी अभी चला।
हमेशा से ही दोनों अपनी अपनी दलीलें लेके अलग राहों पे खड़े थे,
और मेरे कदम हमेशा से ही दोनों में से एक राह पड़ बढ़े थे।


उस दिन जब पहली बार दिल और दिमाग एक दुसरे के साथ संधि करने को बढ़े थे,
तब मेरे कदम बिलकुल अलग राह पे क्यूँ बढ़े थे?
उनका लिया हुआ फैसला तो एकदम सही था,
लेकिन फिर भी मैं उनको नज़रंदाज़ करके आगे क्यूँ बढ़ा था?

PS: Always try to make yourself calm and quiet before taking any important decision in your life and listen to your heart and mind because its only for a fraction of second that they will be together directing you towards the only path that is best for you.

cya...

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